आख़िर किसे फ़र्क पड़ता है..


वो हर एक शख्स जो मुझे आजमाता है,
क्या वो मुझे जानता भी है?
जिस कदर खेलता है मुझसे,
क्या पहचानता भी है?

अपनी मर्ज़ी से मुझे छूता है,
छेड़ता है, कचोटता है;
प्यार भी दिखाता है और
नफ़रत भी करता है |

जब मन आता है,
अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करता है,
और नुकसान के डर से छोड़ भी देता है |

चाहे नर हो या मादा,
सबका है दोष आधा-आधा;
आख़िर मैं हूँ क्या ?
क्यों मुझे हरदम नीलाम करते हो?
जब खुद पर बन आती है,
आख़िर तभी क्यूँ डरते हो?

कहते सब मुझे अपना हैं,
मानता कोई भी नहीं |

मैं सबका अपना निजी स्वार्थ हूँ |

मैं वो सच हूँ,
जिसका अपना एक बाजार है |

मैं वो सच हूँ,
जिसका चल रहा व्यापार है |

मैं वो सच हूँ,
जो आज भ्रष्टाचार है |

मैं वो सच हूँ,
जो सचमुच बहुत बीमार है |

मैं वो सच हूँ,
जिसे बोलने वाला मरता है |

मैं वो सच हूँ,
जिसे बोलने से पहले एक इंसान सौ बार सबर करता है |

मैं वो सच हूँ,
जिसको बोलने का साहस लोगों में कहीं खो गया है |

मैं वो सच हूँ,
जो अब बर्दाश्त के बाहर हो गया है |

पर अब जो हूँ, जैसा हूँ,
हूँ तो आख़िर सच,
तो बोलूँगा भी वही |

एक और सच कहूँ?

बुरा तो नहीं मानोगे?
खैर मानोगे भी तो, 


सच रहेगा तो सच ही |

कहते तो हो -
' सत्यमेव जयते नानृतं |'
पर क्या सच में??

खैर...

जाने दो |
आख़िर किसे फ़र्क पड़ता है |



Comments

Popular posts from this blog

Some are truly made of GREAT

Eat less sugar, You are sweet enough already

EVM Politics in UP Assembly Elections